Monday, April 19, 2010

न गीता हूं ना क़ुरान हूं मैं


मुझको पढ़, इंसान हूं मैं

गीता क़ुरान तो बहुतों ने पढ़ी होंगी

यह सच्चे आदर्शों के पेचीदा दस्तावेज़ हैं

बिल्कुल आसान हूं मैं

मुझको पढ़, इंसान हूं मैं



न क़ौम की न नस्ल की

न मुल्क की न मज़हब की दीवारें

साथ नहीं हैं धर्म के सहारे,

पाएगा तू तुझे मुझमें ऐसा करिश्माईं दर्पण हूं मैं

बंट चुके हैं लोग बंटी हुई हैं ज़मीनें

जो न बंट सके ऐसी पानी की धार हूं

जिसे कोइ तोड़ न सके ऐसा आसमान हूं मैं

मुझको पढ़, इंसान हूं मैं



खुदा ईश्वर की बात बाद में

पहले तू तुझे समझ ले

मैं क्या हूं मुझे समझा दे,

जिसे कोई अब तक न समझ सका हो

ऐसा एक अरमान हूं मैं

मुझको पढ़, इंसान हूं मैं



खुदा तो निराकार हैं,

मैं तो एक आकार हूं

जो करता इस जहां को साकार हूं

जिसे अब तक कोइ साबित न कर सका हो

ऐसा एक अविष्कार हूं

इन पेड़ों, बादलों, ज़मीनों, आबो हवाओं में जो बसा है

उसी की पहचान हूं मैं

मुझको पढ़, इंसान हूं मैं

मुझको पढ़, इंसान हूं मैं ।।

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