Saturday, April 17, 2010

जन्नत

ऐ खुदा

मै तो तेरा ही था

तुने ही तो मुझे जिंदगी की सुबह दी थी

तेरे रस्ते पर चलना

काटो का ताज था ..

गिर गया मै , फिर संभला

फिर खड़ा हुवा ..

कभी टुटा , कभी समेटा

इस दिल को कितने बार

कांच की तरह संभाला..

तेरी दि हुवी पाक रूह को


 पाक ही रखने की कोशिश की

हजारो कोशिश के बाद

आज इस मुकाम पर हु

तेरे दीदार का प्यासा हु

तेरे पास आना चाहता हु ..


 ऐ खुदा ..

नहीं चाहिए जन्नत मुझे

ना ही चाहिए जहन्नुम ..

बस यही इल्ताजा है मेरी

मुझे वैसा हि ले ले अपने पास

जैसे मां के पेट मे

मै था एक रक्त कि बूंद ...



जनम से लेकर मरण तक

का सफ़र न पुछ मुझे

और न पुछ कोई हिसाब और किताब

मै बताने लायक नहीं हु...

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