दूर गगन में
जिस दिन सूरज थोडा भी न पिघले
और सड़कों पर बिखरा हो सूनापन
ऐसी किसी जलती दोपहर में तुम आना
सूखे पत्तों को समेटकर हम
आँगन का एक कोना चुनेंगे
नीम की ठंडी छाँव तले बैठ हम
हरियाली का सपना बुनेंगे
तुम आँखे मूँद लेना
मोगरे की महकती कलियों की
होगी एक सुंदर पतवार
मधुमालती के झूले को
हम उस पतवार से चलाएँगे
और दूर गगन में उड़ जाएँगे
उन हिम शिखरों तक, जहाँ से
बहती होगी गंगा-सी धवल धार
फिर तुम आँखे खोलना और देखना
कि तीखी धूप वाली दोपहरी
बदल गई है सिंदूरी शाम में
और चाँदनी के दीये जल उठें हैं
देवदार की कतार में।
दुःख के हिरन चौकड़ी भर कर
अँधेरे में विलीन हो गए है।
एक-दूजे का हाथ थाम हम
किसी पहाड़ी राग में खो गए हैं। दीपाली
Thursday, April 29, 2010
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