हाँ पापा, मैंने प्यार किया था
उसी लड़के से
जिसे आपने मेरे लिए ढूँढा था।
उसी लड़के से
जो बेटा था आपके ही मित्र का।
हाँ पापा, मैंने प्यार किया था बस उसी से।
फिर क्या हुआ?
क्यों नहीं बन सकी मैं उसकी और वो मेरा?
मैंने तो एक अच्छी बेटी का
निभाया था ना फर्ज?
जो तस्वीर लाकर रख दी सामने
उसी को जड़ लिया था अपने दिल की फ्रेम में।
फिर क्यों हुआ ऐसा कि
नहीं हुआ उसे मुझसे प्यार?
क्या साँवली लड़कियाँ
नहीं ब्याही जाती इस देश में?
क्यों लिखते हैं कवि झूठी कविताएँ?
अगर होता जो मुझमें सलोनापन तो
क्या यूँ ठूकरा दी जाती
बिना किसी अपराध के?
पापा, आपको नहीं पता
कितना कुछ टूटा था उस दिन
जब सुना था मैंने आपको यह कहते हुए
'बस, थोड़ा सा रंग ही दबा हुआ है मेरी बेटी का
बाकि तो कुछ कमी नहीं।
उफ, मैं क्यों कर बैठी उस शो-केस में रखे
गोरे पुतले से प्यार?
मुझे देख लेना था
अपने साँवले रंग को एक बार।
सारी प्रतिभा, सारी सुघड़ताएँ
बस एक ही लम्हे में सिकुड़ सी गई थी।
और फैल गया था उस दिन
सारे घर में मेरा साँवला रंग।
कोई नहीं जानता पापा
माँ भी नहीं।
हाँ, मैंने प्यार किया था
उसी लड़के से
जिसे ढूँढा था आपने मेरे लिए।
Monday, November 30, 2009
PYAR
प्यार किया नहीं जाता, बस हो जाता है। मशहूर शायर मिर्जा गालिब के शब्दों में, 'इश्क वो आतिश है गालिब, जो लगाए न लगे और बुझाए न बुझे' और जब इश्क हो ही गया है तो कब तक इसे छिपाकर रखा जा सकता है। कहते हैं कि प्यार तो प्यार करने वाले की आँखों से झलकता है। कहा भी गया है-
'इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते।'
प्यार, इश्क और मोहब्बत महज शब्द नहीं हैं। इन शब्दों में निहित हैं कई अहसास और कई कड़वी-मीठी स्मृतियाँ। कई ऐसे अहसास जो कि कभी तो नयनों को सजल कर दें तो कभी होठों पर एक मुस्कुराहट तैर जाए। प्यार तो एक फूल के माफिक है, जिस तरह फूल अपनी खुशबू से पूरी बगिया को महका देता है, उसी तरह प्यार रूपी फूल भी अपनी स्मृति रूपी खुशबू से जीवन की बगिया को सुगंधित कर देता है।
पहला प्यार तो पहली बारिश की तरह है। जिस तरह बारिश की बूँदें तपती धरती के कलेजे पर पड़कर शीतलता प्रदान करने के साथ-साथ अपनी सौंधी सुगंध से मानव मन को महका देती हैं। बिल्कुल उसी तरह पहले प्यार की मधुर स्मृतियाँ जब प्यार करने वालों के मन मस्तिष्क पर पड़ती हैं तो प्यार करने वालों के हृदय को हर्ष विभोर कर देती हैं।
जिंदगी के सफर में चलते-चलते नजरें मिलीं और हो गया प्यार। बस होना था सो हो गया। और प्यार के अथाह समंदर में तैरते, डूबते हुए कुछ ऐसे आनंदित पलों को महसूस भी कर लिया जो किसी भी अमूल्य निधि से बढ़कर हैं लेकिन जिस तरह एक सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसी तरह प्यार के भी दो पहलू होते हैं। सुखद और दुखद।
लेकिन यह क्या एक ही राह पर चलते-चलते पता नहीं क्या हुआ, किसने वफा निभाई और किसने की बेवफाई। शायद किसी ने न की हो पर, कुछ परिस्थितियाँ ही ऐसी बन आईं कि छूट गया हो एक-दूसरे का हाथ, एक-दूसरे का साथ। प्यार की राहों में उतरना तो बड़ा आसान है, परन्तु उन राहों पर निरंतर साथ चलते रहना बड़ा ही मुश्किल है गालिब कहते हैं,
ये इश्क नहीं आसां, इतना समझ लीजै
एक आग का दरिया है और डूबकर जाना है।
इसलिए बड़े खुशनसीब होते हैं वे लोग जिनका पहला प्यार ही उनके जीवन के सफर में हमसफर बनकर मंजिल तक साथ रहता है। कुछ लोगों का पहला प्यार बीच सफर में ही अपना दामन छुड़ाकर अपनी राह बदल लेता है और बदले में दे जाता है, चंद आँसू, मुट्ठीभर यादें और कुछ आहें।
फिर जब प्यार जिंदगी को इस दोराहे पर लाकर खड़ा कर दे तो अच्छा हो कि उस सफर को उसी मोड़ पर छोड़, अपनी राह बदलकर अपनी मंजिल की तलाश कर ली जाए।
'वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन,
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।'
जो लोग अपने प्यार को पा लेते हैं वे तो ताउम्र ही ईश्वर का शुक्रिया अदा करते हैं, परन्तु वे लोग जो कि किसी कारणवश अपने प्यार को नहीं पा सके वे अक्सर ही खुद से, औरों से और ईश्वर से यही शिकायत करते हैं :
'जुस्तजू जिसकी थी, उसको तो न पाया हमने'
परन्तु यह शिकायत, यह शिकवा क्यों? यह दुनिया तो एक मेले के समान है और व्यक्ति उसमें घूमने या भटकने वाला प्राणी मात्र। ईश्वर हम सबका परमपिता परमात्मा है। जिस तरह एक बच्चा मेले में घूमते हुए हर उस खिलौने को लेने की जिद करता है, लालायित रहता है जो उसे पसंद आता है लेकिन एक पिता अपने बच्चे को वही खिलौना दिलाता है जो उसके लिए बना होता है और जो नुकसानदेह नहीं होता। ठीक उसी तरह व्यक्ति भी वही सब कुछ पाना चाहता है जो कि उसके मन को लुभाता है, परंतु ईश्वर उसे वही देता है जो उसने उसके लिए बनाया होता है।
अंततः ईश्वर ने उन प्यार करने वालों को, शिकायत करने वालों को और सबको वही दिया जो कि उसने उनके लिए बनाया है। फिर कैसे गिले-शिकवे। जो मिल न सका या जिसे पा ही न सके, उसका गम मनाने से अच्छा हो जिसे पा लिया है, उसको पाने की खुशियाँ मनाई जाएँ। वही आपका है जिसे ईश्वर ने आपके लिए बना दिया है। फिर ऐसा भी तो हो सकता है कि आपने ही गलत दिल के दरवाजे पर दस्तक दी हो और फिर-
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता।
'इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते।'
प्यार, इश्क और मोहब्बत महज शब्द नहीं हैं। इन शब्दों में निहित हैं कई अहसास और कई कड़वी-मीठी स्मृतियाँ। कई ऐसे अहसास जो कि कभी तो नयनों को सजल कर दें तो कभी होठों पर एक मुस्कुराहट तैर जाए। प्यार तो एक फूल के माफिक है, जिस तरह फूल अपनी खुशबू से पूरी बगिया को महका देता है, उसी तरह प्यार रूपी फूल भी अपनी स्मृति रूपी खुशबू से जीवन की बगिया को सुगंधित कर देता है।
पहला प्यार तो पहली बारिश की तरह है। जिस तरह बारिश की बूँदें तपती धरती के कलेजे पर पड़कर शीतलता प्रदान करने के साथ-साथ अपनी सौंधी सुगंध से मानव मन को महका देती हैं। बिल्कुल उसी तरह पहले प्यार की मधुर स्मृतियाँ जब प्यार करने वालों के मन मस्तिष्क पर पड़ती हैं तो प्यार करने वालों के हृदय को हर्ष विभोर कर देती हैं।
जिंदगी के सफर में चलते-चलते नजरें मिलीं और हो गया प्यार। बस होना था सो हो गया। और प्यार के अथाह समंदर में तैरते, डूबते हुए कुछ ऐसे आनंदित पलों को महसूस भी कर लिया जो किसी भी अमूल्य निधि से बढ़कर हैं लेकिन जिस तरह एक सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसी तरह प्यार के भी दो पहलू होते हैं। सुखद और दुखद।
लेकिन यह क्या एक ही राह पर चलते-चलते पता नहीं क्या हुआ, किसने वफा निभाई और किसने की बेवफाई। शायद किसी ने न की हो पर, कुछ परिस्थितियाँ ही ऐसी बन आईं कि छूट गया हो एक-दूसरे का हाथ, एक-दूसरे का साथ। प्यार की राहों में उतरना तो बड़ा आसान है, परन्तु उन राहों पर निरंतर साथ चलते रहना बड़ा ही मुश्किल है गालिब कहते हैं,
ये इश्क नहीं आसां, इतना समझ लीजै
एक आग का दरिया है और डूबकर जाना है।
इसलिए बड़े खुशनसीब होते हैं वे लोग जिनका पहला प्यार ही उनके जीवन के सफर में हमसफर बनकर मंजिल तक साथ रहता है। कुछ लोगों का पहला प्यार बीच सफर में ही अपना दामन छुड़ाकर अपनी राह बदल लेता है और बदले में दे जाता है, चंद आँसू, मुट्ठीभर यादें और कुछ आहें।
फिर जब प्यार जिंदगी को इस दोराहे पर लाकर खड़ा कर दे तो अच्छा हो कि उस सफर को उसी मोड़ पर छोड़, अपनी राह बदलकर अपनी मंजिल की तलाश कर ली जाए।
'वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन,
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।'
जो लोग अपने प्यार को पा लेते हैं वे तो ताउम्र ही ईश्वर का शुक्रिया अदा करते हैं, परन्तु वे लोग जो कि किसी कारणवश अपने प्यार को नहीं पा सके वे अक्सर ही खुद से, औरों से और ईश्वर से यही शिकायत करते हैं :
'जुस्तजू जिसकी थी, उसको तो न पाया हमने'
परन्तु यह शिकायत, यह शिकवा क्यों? यह दुनिया तो एक मेले के समान है और व्यक्ति उसमें घूमने या भटकने वाला प्राणी मात्र। ईश्वर हम सबका परमपिता परमात्मा है। जिस तरह एक बच्चा मेले में घूमते हुए हर उस खिलौने को लेने की जिद करता है, लालायित रहता है जो उसे पसंद आता है लेकिन एक पिता अपने बच्चे को वही खिलौना दिलाता है जो उसके लिए बना होता है और जो नुकसानदेह नहीं होता। ठीक उसी तरह व्यक्ति भी वही सब कुछ पाना चाहता है जो कि उसके मन को लुभाता है, परंतु ईश्वर उसे वही देता है जो उसने उसके लिए बनाया होता है।
अंततः ईश्वर ने उन प्यार करने वालों को, शिकायत करने वालों को और सबको वही दिया जो कि उसने उनके लिए बनाया है। फिर कैसे गिले-शिकवे। जो मिल न सका या जिसे पा ही न सके, उसका गम मनाने से अच्छा हो जिसे पा लिया है, उसको पाने की खुशियाँ मनाई जाएँ। वही आपका है जिसे ईश्वर ने आपके लिए बना दिया है। फिर ऐसा भी तो हो सकता है कि आपने ही गलत दिल के दरवाजे पर दस्तक दी हो और फिर-
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता।
आओ इश्क की बातें कर लें, आओ खुदा की इबादत कर लें,
तुम मुझे ले चलो कहीं पर, जहाँ हम खामोशी से बातें कर लें!!!
लबों पर कोई लफ्ज़ न रह जाए, खामोशी जहाँ खामोश हो जाए ;
सारे तूफान जहाँ थम जाए, जहाँ समंदर आकाश बन जाए।
तुम अपनी आँखों में मुझे समां लेना, मैं अपनी साँसों में तुम्हें भर लूँ,
ऐसी बस्ती में ले चलो, जहाँ, हमारे दरमियाँ कोई वजूद न रह जाए!
कोई क्या दीवारें बनाएगा, हमने अपनी दुनिया बसा ली है,
जहाँ हम और खुदा हो, उसे हमने मोहब्बत का आशियाँ नाम दिया है!
मैं दरवेश हूँ तेरी जन्नत का, रिश्तों की क्या कोई बातें करे,
किसी ने हमारा रिश्ता पूछा, मैंने दुनिया के रंगों से तेरी माँग भर दी
आओ इश्क की बातें कर लें, आओ खुदा की इबादत कर लें,
तुम मुझे ले चलो कहीं पर, जहाँ हम खामोशी से बातें कर लें!!!
तुम मुझे ले चलो कहीं पर, जहाँ हम खामोशी से बातें कर लें!!!
लबों पर कोई लफ्ज़ न रह जाए, खामोशी जहाँ खामोश हो जाए ;
सारे तूफान जहाँ थम जाए, जहाँ समंदर आकाश बन जाए।
तुम अपनी आँखों में मुझे समां लेना, मैं अपनी साँसों में तुम्हें भर लूँ,
ऐसी बस्ती में ले चलो, जहाँ, हमारे दरमियाँ कोई वजूद न रह जाए!
कोई क्या दीवारें बनाएगा, हमने अपनी दुनिया बसा ली है,
जहाँ हम और खुदा हो, उसे हमने मोहब्बत का आशियाँ नाम दिया है!
मैं दरवेश हूँ तेरी जन्नत का, रिश्तों की क्या कोई बातें करे,
किसी ने हमारा रिश्ता पूछा, मैंने दुनिया के रंगों से तेरी माँग भर दी
आओ इश्क की बातें कर लें, आओ खुदा की इबादत कर लें,
तुम मुझे ले चलो कहीं पर, जहाँ हम खामोशी से बातें कर लें!!!
PREM KI PAHECHAN
प्रेम में ईर्ष्या हो तो प्रेम ही नहीं है; फिर प्रेम के नाम से कुछ और ही चल रहा है। ईर्ष्या सूचक है प्रेम के अभाव की। यह तो ऐसा ही हुआ, जैसा दीया जले और अँधेरा हो। दीया जले तो अँधेरा होना नहीं चाहिए। अँधेरे का न हो जाना ही दीए के जलने के जलने का प्रमाण है। ईर्ष्या का मिट जाना ही प्रेम का प्रमाण है। ईर्ष्या अँधेरे जैसी है; प्रेम प्रकाश जैसा है। इसको कसौटी समझना।
जब तक ईर्ष्या रहे तब तक समझना कि प्रेम प्रेम नहीं। तब तक प्रेम के नाम से कोई और ही खेल चल रहा है; अहंकार कोई नई यात्रा कर रहा है- प्रेम के नाम से दूसरे पर मालकियत करने का मजा, प्रेम के नाम से दूसरे का शोषण, दूसरे व्यक्ति का साधन की भांति उपयोग। और दूसरे व्यक्ति का साधन की भाँति उपयोग जगत में सबसे बड़ी अनीति है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, साधन नहीं।
तो भूल कर भी किसी का उपयोग मत करना। किसी के काम आ सको तो ठीक, लेकिन किसी को अपने काम में मत ले आना। इससे बड़ा कोई अपमान नहीं है कि तुम किसी को अपने काम में ले आओ। इसका अर्थ हुआ कि परमात्मा को सेवक बना लिया। सेवक बन सको तो बन जाना, लेकिन सेवक बनाना मत।
असली प्रेम उसी दिन उदय होता है जिस दिन तुम इस सत्य को समझ पाते हो कि सब तरफ परमात्मा विराजमान है। तब सेवा के अतिरिक्त कुछ बचता नहीं। प्रेम तो सेवा है, ईर्ष्या नहीं। प्रेम तो समर्पण है, मालकियत नहीं।
हम बड़े कुशल हैं। हम गंदगी को सुगंध छिड़ककर भुला देने में बड़े निपुण हैं। हम घावों के ऊपर फूल रख देने में बड़े सिद्ध हैं। हम झूठ को सच बना देने में बड़े कलाकार हैं।
जिससे नहीं बनती है उसके साथ भी हम प्रेम बतलाए जाते हैं। जिसको कभी चाहा नहीं है उसके साथ भी हम प्रेम बतलाए चले जाते हैं। प्रेम हमारी कुछ और ही व्यवस्था है - सुरक्षा, आर्थिक, जीवन की सुविधा। इसी ढाँचे से अगर तुम तृप्त हो तो तुम्हारी मर्जी। इसी ढाँचे के कारण तुम परमात्मा को चूक रहे हो, क्योंकि परमात्मा प्रेम से मिलता है। प्रेम के अतिरिक्त परमात्मा के मिलने का और कोई द्वार नहीं है। जो प्रेम से चूका वह परमात्मा से भी चूक जाएगा।
प्रेम में पहरा कहाँ? प्रेम में भरोसा होता है। प्रेम में एक आस्था होती है। प्रेम में एक अपूर्व श्रद्धा होती है। ये सब प्रेम के ही फूल हैं - श्रद्धा, भरोसा, विश्वास। प्रेमी अगर विश्वास न कर सके, श्रद्धा न कर सके, भरोसा न कर सके, तो प्रेम में फूल खिले ही नहीं। ईर्ष्या, जलन, वैमनस्य, द्वेष, मत्सर तो घृणा के फूल हैं। तो फूल तो तुम घृणा के लिए हो और सोचते हो प्रेम का पौधा लगाया है। नीम के कड़वे फल लगते हैं तुममें और सोचते हो आम का पौधा लगाया है। इस भ्रांति को तोड़ो।
प्रेम सत्य तक जाने का मार्ग बन सकता है - उस प्रेम की, जिसकी तुम तलाश कर रहे हो, लेकिन जो तम्हें अभी तक मिला नहीं है। मिल सकता है, तुम्हारी संभावना है। और जब तक न मिलेगा तब तक तुम रोओगे, तड़पोगे, परेशान होओगे। जब तक तुम्हारे जीवन का फूल न खिले और जीवन के फूल में प्रेम की सुगंध न उठे, तब तक तुम बेचैन रहोगे। अतृप्त! तब तक तुम कुछ भी करो, तुम्हें राहत न आएगी, चैन न आएगा। खिले बिना आप्तकाम न हो सकोगे। प्रेम तो फूल है।
जब तक ईर्ष्या रहे तब तक समझना कि प्रेम प्रेम नहीं। तब तक प्रेम के नाम से कोई और ही खेल चल रहा है; अहंकार कोई नई यात्रा कर रहा है- प्रेम के नाम से दूसरे पर मालकियत करने का मजा, प्रेम के नाम से दूसरे का शोषण, दूसरे व्यक्ति का साधन की भांति उपयोग। और दूसरे व्यक्ति का साधन की भाँति उपयोग जगत में सबसे बड़ी अनीति है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, साधन नहीं।
तो भूल कर भी किसी का उपयोग मत करना। किसी के काम आ सको तो ठीक, लेकिन किसी को अपने काम में मत ले आना। इससे बड़ा कोई अपमान नहीं है कि तुम किसी को अपने काम में ले आओ। इसका अर्थ हुआ कि परमात्मा को सेवक बना लिया। सेवक बन सको तो बन जाना, लेकिन सेवक बनाना मत।
असली प्रेम उसी दिन उदय होता है जिस दिन तुम इस सत्य को समझ पाते हो कि सब तरफ परमात्मा विराजमान है। तब सेवा के अतिरिक्त कुछ बचता नहीं। प्रेम तो सेवा है, ईर्ष्या नहीं। प्रेम तो समर्पण है, मालकियत नहीं।
हम बड़े कुशल हैं। हम गंदगी को सुगंध छिड़ककर भुला देने में बड़े निपुण हैं। हम घावों के ऊपर फूल रख देने में बड़े सिद्ध हैं। हम झूठ को सच बना देने में बड़े कलाकार हैं।
जिससे नहीं बनती है उसके साथ भी हम प्रेम बतलाए जाते हैं। जिसको कभी चाहा नहीं है उसके साथ भी हम प्रेम बतलाए चले जाते हैं। प्रेम हमारी कुछ और ही व्यवस्था है - सुरक्षा, आर्थिक, जीवन की सुविधा। इसी ढाँचे से अगर तुम तृप्त हो तो तुम्हारी मर्जी। इसी ढाँचे के कारण तुम परमात्मा को चूक रहे हो, क्योंकि परमात्मा प्रेम से मिलता है। प्रेम के अतिरिक्त परमात्मा के मिलने का और कोई द्वार नहीं है। जो प्रेम से चूका वह परमात्मा से भी चूक जाएगा।
प्रेम में पहरा कहाँ? प्रेम में भरोसा होता है। प्रेम में एक आस्था होती है। प्रेम में एक अपूर्व श्रद्धा होती है। ये सब प्रेम के ही फूल हैं - श्रद्धा, भरोसा, विश्वास। प्रेमी अगर विश्वास न कर सके, श्रद्धा न कर सके, भरोसा न कर सके, तो प्रेम में फूल खिले ही नहीं। ईर्ष्या, जलन, वैमनस्य, द्वेष, मत्सर तो घृणा के फूल हैं। तो फूल तो तुम घृणा के लिए हो और सोचते हो प्रेम का पौधा लगाया है। नीम के कड़वे फल लगते हैं तुममें और सोचते हो आम का पौधा लगाया है। इस भ्रांति को तोड़ो।
प्रेम सत्य तक जाने का मार्ग बन सकता है - उस प्रेम की, जिसकी तुम तलाश कर रहे हो, लेकिन जो तम्हें अभी तक मिला नहीं है। मिल सकता है, तुम्हारी संभावना है। और जब तक न मिलेगा तब तक तुम रोओगे, तड़पोगे, परेशान होओगे। जब तक तुम्हारे जीवन का फूल न खिले और जीवन के फूल में प्रेम की सुगंध न उठे, तब तक तुम बेचैन रहोगे। अतृप्त! तब तक तुम कुछ भी करो, तुम्हें राहत न आएगी, चैन न आएगा। खिले बिना आप्तकाम न हो सकोगे। प्रेम तो फूल है।
प्रेम अनंत का द्वार खोल देता है- अस्तित्व की शाश्वतता का द्वार। इसलिए अगर तुमने कभी सच में प्रेम किया है तो प्रेम को ध्यान की विधि बनाया जा सकता है। यह वही विधि है : 'प्रिय देवी, प्रेम किए जाने के क्षण में प्रेम में ऐसे प्रवेश करो जैसे कि वह नित्य जीवन हो।'
बाहर-बाहर रहकर प्रेमी मत बनो, प्रेमपूर्ण होकर शाश्वत में प्रवेश करो। जब तुम किसी को प्रेम करते हो तो क्या तुम वहाँ प्रेमी की तरह होते हो? अगर होते हो तो समय में हो, और तुम्हारा प्रेम झूठा है, नकली है। अगर तुम अब भी वहाँ हो और कहते हो कि मैं हूँ तो शारीरिक रूप से नजदीक होकर भी आध्यात्मिक रूप से तुम्हारे बीच दो ध्रुवों की दूरी कायम रहती है।
प्रेम में तुम न रहो, सिर्फ प्रेम रहे; इसलिए प्रेम ही हो जाओ। अपने प्रेमी या प्रेमिका को दुलार करते समय दुलार ही हो जाओ। अहंकार को बिलकुल भूल जाओ, प्रेम के कृत्य में घुल-मिल जाओ। कृत्य में इतने गहरे समा जाओ कि कर्ता न रहे।
और अगर तुम प्रेम में नहीं गहरे उतर सकते तो खाने और चलने में गहरे उतरना कठिन होगा, बहुत कठिन होगा। क्योंकि अहंकार को विसर्जित करने लिए प्रेम सब से सरल मार्ग है। इसी वजह से अहंकारी लोग प्रेम नहीं कर पाते हैं। वे प्रेम के बारे में बातें कर सकते हैं, गीत गा सकते हैं, लिख सकते हैं; लेकिन वे प्रेम नहीं कर सकते। अहंकार प्रेम नहीं कर सकता है।
अपने को इस पूरी तरह भूल जाओ कि तुम कह सको कि मैं अब नहीं हूँ, केवल प्रेम है। तब हृदय नहीं धड़कता है, प्रेम ही धड़कता है। तब खून नहीं दौड़ता है, प्रेम ही दौड़ता है। तब आँखें नहीं देखती हैं, प्रेम ही देखता है। तब हाथ छूने को नहीं बढ़ते, प्रेम ही छूने को बढ़ता है। प्रेम बन जाओ और शाश्वत जीवन में प्रवेश करो।
प्रेम अचानक तुम्हारे आयाम को बदल देता है। तुम समय से बाहर फेंक दिए जाते हो, तुम शाश्वत के आमने-सामने खड़े हो जाते हो। प्रेम गहरा ध्यान बन सकता है - गहरे से गहरा। और कभी-कभी प्रेमियों ने वह जाना है
बाहर-बाहर रहकर प्रेमी मत बनो, प्रेमपूर्ण होकर शाश्वत में प्रवेश करो। जब तुम किसी को प्रेम करते हो तो क्या तुम वहाँ प्रेमी की तरह होते हो? अगर होते हो तो समय में हो, और तुम्हारा प्रेम झूठा है, नकली है। अगर तुम अब भी वहाँ हो और कहते हो कि मैं हूँ तो शारीरिक रूप से नजदीक होकर भी आध्यात्मिक रूप से तुम्हारे बीच दो ध्रुवों की दूरी कायम रहती है।
प्रेम में तुम न रहो, सिर्फ प्रेम रहे; इसलिए प्रेम ही हो जाओ। अपने प्रेमी या प्रेमिका को दुलार करते समय दुलार ही हो जाओ। अहंकार को बिलकुल भूल जाओ, प्रेम के कृत्य में घुल-मिल जाओ। कृत्य में इतने गहरे समा जाओ कि कर्ता न रहे।
और अगर तुम प्रेम में नहीं गहरे उतर सकते तो खाने और चलने में गहरे उतरना कठिन होगा, बहुत कठिन होगा। क्योंकि अहंकार को विसर्जित करने लिए प्रेम सब से सरल मार्ग है। इसी वजह से अहंकारी लोग प्रेम नहीं कर पाते हैं। वे प्रेम के बारे में बातें कर सकते हैं, गीत गा सकते हैं, लिख सकते हैं; लेकिन वे प्रेम नहीं कर सकते। अहंकार प्रेम नहीं कर सकता है।
अपने को इस पूरी तरह भूल जाओ कि तुम कह सको कि मैं अब नहीं हूँ, केवल प्रेम है। तब हृदय नहीं धड़कता है, प्रेम ही धड़कता है। तब खून नहीं दौड़ता है, प्रेम ही दौड़ता है। तब आँखें नहीं देखती हैं, प्रेम ही देखता है। तब हाथ छूने को नहीं बढ़ते, प्रेम ही छूने को बढ़ता है। प्रेम बन जाओ और शाश्वत जीवन में प्रवेश करो।
प्रेम अचानक तुम्हारे आयाम को बदल देता है। तुम समय से बाहर फेंक दिए जाते हो, तुम शाश्वत के आमने-सामने खड़े हो जाते हो। प्रेम गहरा ध्यान बन सकता है - गहरे से गहरा। और कभी-कभी प्रेमियों ने वह जाना है
अग्नि पथ!
- हरिवंशराय बच्चन
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
वृक्ष हों भले खड़े,
हो घने, हो बड़े,
एक पत्र-छॉंह भी मॉंग मत, मॉंग मत, मॉंग मत!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
तू न थकेगा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू न मुड़ेगा कभी!-कर शपथ! कर शपथ! कर शपथ!
यह महान दृश्य है-
चल रहा मनुष्य है
अश्रु-श्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
वृक्ष हों भले खड़े,
हो घने, हो बड़े,
एक पत्र-छॉंह भी मॉंग मत, मॉंग मत, मॉंग मत!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
तू न थकेगा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू न मुड़ेगा कभी!-कर शपथ! कर शपथ! कर शपथ!
यह महान दृश्य है-
चल रहा मनुष्य है
अश्रु-श्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
YAAD
याद आते रहे, दिल दुखाते रहे वो रह रह के हमको सताते रहे
शक्ल अपनी ही लगने लगी अजनबी आईने उलझनों को बढ़ाते रहे
वो नज़रें झुकाने की उनकी अदा हम फ़रेबेमोहब्बत खाते रहे
जिस से गुज़रे थे हम सैकड़ों मर्तबा हमारी मंज़िल वहीं वो बताते रहे
ऐसा छाया अंधेरों का हम पर सुरूर शम्मेदिल रात दिन हम जलाते रहे
साहिले पर ग़म की लहरों के बीच नाम उसका हम लिखते मिटाते रहे
कैसी दुनिया बनाई है तूने ख़ुदा कैसी है जिसको निभाते रहे
दुश्मनों से मोहब्बत सी होने लगी दोस्त ऐसे हमें आज़माते रहे
शक्ल अपनी ही लगने लगी अजनबी आईने उलझनों को बढ़ाते रहे
वो नज़रें झुकाने की उनकी अदा हम फ़रेबेमोहब्बत खाते रहे
जिस से गुज़रे थे हम सैकड़ों मर्तबा हमारी मंज़िल वहीं वो बताते रहे
ऐसा छाया अंधेरों का हम पर सुरूर शम्मेदिल रात दिन हम जलाते रहे
साहिले पर ग़म की लहरों के बीच नाम उसका हम लिखते मिटाते रहे
कैसी दुनिया बनाई है तूने ख़ुदा कैसी है जिसको निभाते रहे
दुश्मनों से मोहब्बत सी होने लगी दोस्त ऐसे हमें आज़माते रहे
Monday, November 16, 2009
TUM MERE HO
तुम... जिंदगी का एहसास हो...कुछ सपनों की खुशबू हो कोई फरियाद हो किस से कहूँ कि तुम मेरे हो
...किसी किताब में रखा कोई सूखा फूल हो किसी गीत में रुका हुआ कोई अंतरा हो किसी सड़क पर ठहरा हुआ मोड़ हो
तुम...किसी अजनबी रिश्ते की आंच हो अनजानी धड़कन का नाम हो किसी नदी में ठहरी हुई धारा हो
तुम...किसी आँसू में रुकी हुई सिसकी हो किसी खामोशी के जज्बात हो किसी मोड़ पर टूटा हुआ हाथ हो किससे कहूँ कि तुम मेरे हो
तुम...हाँ, मेरे अपने सपनों में तुम हो हाँ, मेरी आखिरी फरियाद तुम हो हाँ, मेरी अपनी जिंदगी का एहसास हो मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूँगा कितुम मेरी चाहत का एक हिस्सा हो शायद, तुम मेरे हो तुम हाँ... तुम...हाँ, मेरे अपने सपनों में तुम हो हाँ, मेरी आखिरी फरियाद तुम हो हाँ, मेरी अपनी जिंदगी का एहसास हो कोई हाँ, तुम मेरे हो हाँ, तुम मेरे हो हाँ, तुम मेरे हो
...किसी किताब में रखा कोई सूखा फूल हो किसी गीत में रुका हुआ कोई अंतरा हो किसी सड़क पर ठहरा हुआ मोड़ हो
तुम...किसी अजनबी रिश्ते की आंच हो अनजानी धड़कन का नाम हो किसी नदी में ठहरी हुई धारा हो
तुम...किसी आँसू में रुकी हुई सिसकी हो किसी खामोशी के जज्बात हो किसी मोड़ पर टूटा हुआ हाथ हो किससे कहूँ कि तुम मेरे हो
तुम...हाँ, मेरे अपने सपनों में तुम हो हाँ, मेरी आखिरी फरियाद तुम हो हाँ, मेरी अपनी जिंदगी का एहसास हो मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूँगा कितुम मेरी चाहत का एक हिस्सा हो शायद, तुम मेरे हो तुम हाँ... तुम...हाँ, मेरे अपने सपनों में तुम हो हाँ, मेरी आखिरी फरियाद तुम हो हाँ, मेरी अपनी जिंदगी का एहसास हो कोई हाँ, तुम मेरे हो हाँ, तुम मेरे हो हाँ, तुम मेरे हो
PREM
प्रेम को अभिव्यक्त करने की सर्वोत्तम भाषा मौन है, क्योंकि प्रेम मानव मन का वह भाव है, जो कहने-सुनने के लिए नहीं बल्कि समझने के लिए होता है या उससे भी बढ़कर महसूस करने के लिए होता है। प्रेम ही मानव जीवन की नींव है। प्रेम के बिना सार्थक एवं सुखमय इंसानी जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। प्रेम की परिभाषा शब्दों की सहायता से संभव ही नहीं है।सारे शब्दों के अर्थ जहां जाकर अर्थरहित हो जाते हैं, वहीं से प्रेम के बीज का प्रस्फुटन होता है। वहीं से प्रेम की परिभाषा आरंभ होती है। प्रेम का अर्थ शब्दों से परे है।
प्रेम एक सुमधुर सुखद अहसास मात्र है। प्रेम की मादकता भरी खुशबू को केवल महसूस किया जा सकता है। प्रेम का अहसास अवर्णनीय है। इसलिए इस मधुर अहसास के विश्लेषण की भाषा को मौन कहा गया है। प्रेम को शब्द रूपी मोतियों की सहायता से भावना की डोर में पिरोया तो जा सकता है किंतु उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती है क्योंकि जिसे परिभाषित किया जा सकता है, जिसकी व्याख्या की जा सकती है, वह चीज तो एक निश्चित दायरे में सिमटकर रह जाती है जबकि प्रेम तो सर्वत्र है। प्रेम के अभाव में जीवन कोरी कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं।प्रेम इंसान की आत्मा में पलने वाला एक पवित्र भाव है। दिल में उठने वाली भावनाओं को आप बखूबी व्यक्त कर सकते हैं किंतु यदि आपके हृदय में किसी के प्रति प्रेम है तो आप उसे अभिव्यक्त कर ही नहीं सकते, क्योंकि यह एक अहसास है और अहसास बेजुबान होता है, उसकी कोई भाषा नहीं होती।
प्रेम में बहुत शक्ति होती है। इसकी सहायता से सब कुछ संभव है तभी तो प्यार की बेजुबान बोली जानवर भी बखूबी समझ लेते हैं।प्यार कब, क्यों, कहाँ, कैसे और किससे हो जाए, इस विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। इसके लिए पहले से कोई व्यक्ति, विशेष स्थान, समय, परिस्थिति आदि कुछ भी निर्धारित नहीं है। जिसे प्यार जैसी दौलत मिल जाए उसका तो जीवन के प्रति नजरिया ही इंद्रधनुषी हो जाता है। उसे सारी सृष्टि बेहद खूबसूरत नजर आने लगती है। प्रेम के अनेक रूप हैं। बचपन में माता-पिता, भाई-बहनों का प्यार, स्कूल-कॉलेज में दोस्तों का प्यार, दाम्पत्य जीवन में पति-पत्नी का प्यार। प्रेम ही हमारी जीवन की आधारशिला है तभी तो मानव जीवन के आरंभ से ही धरती पर प्रेम की पवित्र निर्मल गंगा हमारे हर कदम के साथ बह रही है। किसी शायर ने क्या खूब कहा है-साँसों से नहीं, कदमों से नहीं,मुहब्बत से चलती है दुनिया।सच्चा प्यार केवल देने और देते रहने में ही विश्वास करता है। जहां प्यार है, वहां समर्पण है। जहां समर्पण है, वहां अपनेपन की भावना है और जहां यह भावना रूपी उपजाऊ जमीन है, वहीं प्रेम का बीज अंकुरित होने की संभावना है।
जिस प्रकार सीने के लिए धड़कन जरूरी है, उसी तरह जीवन के लिए प्रेम आवश्यक है। तभी तो प्रेम केवल जोड़ने में विश्वास रखता है न कि तोड़ने में।सही मायने में सच्चा एवं परिपक्व प्रेम वह होता है, जो कि अपने प्रिय के साथ हर दुःख-सुख, धूप-छाँव, पीड़ा आदि में हर कदम सदैव साथ रहता है और अहसास कराता है कि मैं हर हाल में तुम्हारे साथ, तुम्हारे लिए हूं। प्रेम को देखने-परखने के सबके नजरिए अलग हो सकते हैं, किंतु प्रेम केवल प्रेम ही है और प्रेम ही रहेगा क्योंकि अभिव्यक्ति का संपूर्ण कोष रिक्त हो जाने के बावजूद और अहसासों की पूर्णता पर पहुंचने के बाद भी प्रेम केवल प्रेम रहता है।
प्रेम एक सुमधुर सुखद अहसास मात्र है। प्रेम की मादकता भरी खुशबू को केवल महसूस किया जा सकता है। प्रेम का अहसास अवर्णनीय है। इसलिए इस मधुर अहसास के विश्लेषण की भाषा को मौन कहा गया है। प्रेम को शब्द रूपी मोतियों की सहायता से भावना की डोर में पिरोया तो जा सकता है किंतु उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती है क्योंकि जिसे परिभाषित किया जा सकता है, जिसकी व्याख्या की जा सकती है, वह चीज तो एक निश्चित दायरे में सिमटकर रह जाती है जबकि प्रेम तो सर्वत्र है। प्रेम के अभाव में जीवन कोरी कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं।प्रेम इंसान की आत्मा में पलने वाला एक पवित्र भाव है। दिल में उठने वाली भावनाओं को आप बखूबी व्यक्त कर सकते हैं किंतु यदि आपके हृदय में किसी के प्रति प्रेम है तो आप उसे अभिव्यक्त कर ही नहीं सकते, क्योंकि यह एक अहसास है और अहसास बेजुबान होता है, उसकी कोई भाषा नहीं होती।
प्रेम में बहुत शक्ति होती है। इसकी सहायता से सब कुछ संभव है तभी तो प्यार की बेजुबान बोली जानवर भी बखूबी समझ लेते हैं।प्यार कब, क्यों, कहाँ, कैसे और किससे हो जाए, इस विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। इसके लिए पहले से कोई व्यक्ति, विशेष स्थान, समय, परिस्थिति आदि कुछ भी निर्धारित नहीं है। जिसे प्यार जैसी दौलत मिल जाए उसका तो जीवन के प्रति नजरिया ही इंद्रधनुषी हो जाता है। उसे सारी सृष्टि बेहद खूबसूरत नजर आने लगती है। प्रेम के अनेक रूप हैं। बचपन में माता-पिता, भाई-बहनों का प्यार, स्कूल-कॉलेज में दोस्तों का प्यार, दाम्पत्य जीवन में पति-पत्नी का प्यार। प्रेम ही हमारी जीवन की आधारशिला है तभी तो मानव जीवन के आरंभ से ही धरती पर प्रेम की पवित्र निर्मल गंगा हमारे हर कदम के साथ बह रही है। किसी शायर ने क्या खूब कहा है-साँसों से नहीं, कदमों से नहीं,मुहब्बत से चलती है दुनिया।सच्चा प्यार केवल देने और देते रहने में ही विश्वास करता है। जहां प्यार है, वहां समर्पण है। जहां समर्पण है, वहां अपनेपन की भावना है और जहां यह भावना रूपी उपजाऊ जमीन है, वहीं प्रेम का बीज अंकुरित होने की संभावना है।
जिस प्रकार सीने के लिए धड़कन जरूरी है, उसी तरह जीवन के लिए प्रेम आवश्यक है। तभी तो प्रेम केवल जोड़ने में विश्वास रखता है न कि तोड़ने में।सही मायने में सच्चा एवं परिपक्व प्रेम वह होता है, जो कि अपने प्रिय के साथ हर दुःख-सुख, धूप-छाँव, पीड़ा आदि में हर कदम सदैव साथ रहता है और अहसास कराता है कि मैं हर हाल में तुम्हारे साथ, तुम्हारे लिए हूं। प्रेम को देखने-परखने के सबके नजरिए अलग हो सकते हैं, किंतु प्रेम केवल प्रेम ही है और प्रेम ही रहेगा क्योंकि अभिव्यक्ति का संपूर्ण कोष रिक्त हो जाने के बावजूद और अहसासों की पूर्णता पर पहुंचने के बाद भी प्रेम केवल प्रेम रहता है।
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