Friday, March 12, 2010

जागरण की सतत जलती हैं ज्योत जीवन के सागर में हिम सी

चट्टानों के सीनों पर  सिन्धु -लहरों की चोट बहती सी दीखती हैं दुनिया

पेड़ पौधों ,और पर्वतो कों रौंध तब आते हैं प्रभु एक शिशु कि भाति

आँखों में सतरंगी किरणों कों रोप मैं जाती हूँ सम्मोहित सी पीछे पीछे

तभी वह शिशु बन जाता हैं महादेव -किये बिना प्रतिरोध

द्वार पर बैठे भुजंग सहित तभी दिखता हैं एक श्वेत मन्दिर सर्वोच्च

मैं करती हूँ मां कों प्रणाम देते हैं आशीष -शंकर जी मुझे किये बिना रोष

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