भोर के तारे ने एक दिन कहा मुझसे
तुम क्षण भर के लिए मुझ पर
अपनी दृष्टि स्थिर रखना
मैं जैसे ही टूटकर गिरने लगूँ
तुम अपने प्रिय की चाह करना
देखी नहीं जाती क्योंकि मुझसे
तुम्हारी आँखों में सूनेपन की छाया।
इतना स्वार्थी हो नहीं सकता किन्तु
तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम
मेरे सुख के लिए टूटने को तैयार
दूर आकाश में टिमटिमाता
वह तारा ही तो एकमात्र साक्षी है
प्रतीक्षा की उन अनगिनत रातों का।
मुझसे बिना पूछे जो बहती थीं
उसकी मूक सांत्वना की छाया में
वो अश्रुधाराएँ चाँदी सी चमकती थी।
तुमसे कभी कह न सकी
वो तमाम बातें और
दिल के सूनेपन में लिखी हुई
यादों की किताब के सारे पन्ने
मैंने उसको ही सुनाए थे
उसने भी सहानुभूति के आँसू
प्रभात में पँखुरियों पर बिखराए थे।
इसलिए मैं खोना नहीं चाहती
विरह का वो अनमोल साथी
बस इतना भर चाहती हूँ
मेरे न रहने पर कभी
जब तुम निहारों सूना आकाश
तो वह नन्हा सितारा झिलमिलाए
बड़े जतन से सहेजी हुई
मेरे अर्थहीन प्रेम की गाथा
चुपके से तुमको कह सुनाए
तुम्हारी आँखों पर ठहरी बूँदों को
मेरा तर्पण समझकर मुस्कुराए।
Monday, March 29, 2010
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