Tuesday, March 2, 2010

'ये आँसू जो हैं बहते, बस इतना हैं ये कहते।


कहाँ तू और कहाँ मैं, पराया हूँ यहाँ मैं।

करम इतना अगर हो कि मुझपे इक नजर हो।'

इन पंक्तियों में प्रेम की सारी दुनिया समाई है। प्यार की बेबसी को कोई नहीं समझ सकता। जिस पर बीतती है, वह किसी से कह भी नहीं सकता, ये दिमाग की नहीं दिल की बातें हैं। कई बार होता है कि वह जिससे कहता है वही उसे झिड़कता है।
 इश्क इतनी तड़प पैदा नहीं कर पाया कि आयतें उतर पाएँ। प्रेम से मिले सुख को बस हमने स्वीकार किया और उसके दुख को नकार दिया।  'इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजे, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।'

 उससे मिली नफरत, जिल्लत और तौहीन के बाद भी आपके दिल से उसके लिए तेजाब नहीं बस मुस्कराते हुए यही निकले कि 'तू सदा खुश रहे'।
लेकिन कितना अजीब है यह एहसास कि दर्द भी मीठा लगता है। जो दर्द देता है उसके लिए यही निकलता है 'जो कहोगे तुम, कहेंगे हम भी हाँ यूँ सही। आपकी गर यूँ खुशी है मेहरबां यूँ ही सही।' शायद यही प्यार है।

 प्यार माँग नहीं सिर्फ देना है, अपनी तरफ से निभाना है
'उसकी वो जाने उसे पासे-वफा था कि न था,

तुम  अपनी तरफ से तो निभाते जाते।'

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