Wednesday, December 16, 2009

तू बहुत-बहुत याद आती है।

पढ़-लिखकर कुछ बन सकूँ यह तेरा सपना था, जो तूने मेरे लिए देखा था। मैंने भी ईश्वर की असीम कृपा व बड़ों के आशीर्वाद से वह पूर्ण किया। कंपनी की ओर से जब  भेजने का पत्र मिला तो मैं बहुत खुश हुआ, पर तेरी हँसी व प्रसन्नाता के पीछे छुपी उदासी कोमैंने भाँप लिया था।


डैडी ने मेरा हौसला बढ़ाया व कहा, सब ठीक हो जाएगा। फिर तैयारी का दौर शुरू हुआ व तूने मेरा बैग वैसे ही अरेंज किया, जैसे कभी स्कूल बैग किया करती थी। दस-दस बार चीजें संभालने की नसीहत तो कभी यह करना, वह मत करना की लंबी लिस्ट। कभी-कभी खीज पड़ता तो तेरी आँखों से गंगा-जमुना बह उठती। वह क्षण भी आया, जब मैंने एयरपोर्ट पर तुझसे आशीर्वाद ले बिदा होना चाहा। तब तेरे सब्र का बाँध टूट गया व तू मुझसे लिपट फूट-फूटकर रो रही थी। मैं अचानक बहुत बड़ा हो गया था, तुझे समझा रहा था।


डैडी इधर-उधर देख खुद को कमजोर होने से बचा रहे थे और तेरे कंधे पर हाथ रख तुझे समझा भी रहे थे। मेरे लिए भी वे क्षण भारी थे, पर मन पंछी की तरह पंख फैला सुदूर आकाश में उड़ने के जुनून से भरा था। तुझसे अलग होते समय वही बचपन का एहसास जाग उठा, जब केजी में पहली बार तूने मुझे जबर्दस्ती क्लास में बैठाया था। जी में आया, वैसे ही गला फाड़कर रोऊँ, पर दिल कट्ठा कर अपनी राहें चल दिया। तेरा आँसुओंभरा चेहरा बहुत देर पीछा करता रहा, पर आकाश में उड़ान भरने की अनुभूति भी अवर्णनीय थी।

धीरे-धीरे यहाँ के माहौल में स्वयं को ढाल रहा हूँ। बचपन से तू एक-एक काम सिखाने के लिए पीछे पड़ती थी व मैं टालता रहता था। अब जब हर काम हाथ से करने पड़ते हैं तो वही सब याद आता है। स्वयं ही रूम क्लीन करने पड़ते हैं, डस्टिंग करनी पड़ती है, सुबह-शाम लंच वडिनर की व्यवस्था करनी पड़ती है। अब तुझसे फोन पर पूछ-पूछकर बहुत कुछ बनाना सीख गया हूँ। फ्रोजन रोटी खा-खाकर थक गया हूँ। तेरे हाथ के गरम फुलके, कढ़ी, पातळभाजी, पूरणपोळी बहुत याद आते हैं। होटल का खाना खाने की जिद करने वाला मैं घर के खाने को तरसने लगा हूँ।
 
फोन पर हम दोनों एक-दूसरे को सांत्वना देने के लिए 'सब अच्छा है' कहते रहते हैं। वेब कैमरे पर भी मेरी कोशिश होती है कि खुश दिखूँ ताकि तुझे अच्छा लगे, यही तेरी कोशिश भी मुझे साफ दिखाई देती है। पर आज स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूँ खत लिखने को। 'वेस्ट ऑफ टाइम' मान तेरी हँसी उड़ाने वाला मैं अब तेरी चिट्ठी का इंतजार करता रहता हूँ। तेरी चिट्ठी को चार-चार बार पढ़ता रहता हूँ।


अक्षरों को दोहराता रहता हूँ व आज लिखने बैठा हूँ। फोन पर तेरा पहला प्रश्न होता है, 'कैसा है, क्या खाया, ठीक से खाता है या नहीं?' आज सच लिखता हूँ, कुछ भी खाता हूँ उससे पेट तो भर लेता हूँ पर तृप्ति का वह एहसास हो ही नहीं पाता, जो तेरे हाथ का बना खाना देता था। थकान मिटती ही नहीं, क्योंकि सर रखने के लिए जब-तब तेरी गोद यहाँ उपलब्ध नहीं है। सात समुंदर पार आकर सुख-सुविधाएँ,संपन्नाता तो पा ली हैं, पर दिल का सुकून खो गया है, क्योंकि मेरा बचपन तेरे पास ही छूट गया है।

अपना घर-आँगन, बगीचा बहुत-बहुत याद आते हैं। लगता है, काश! पंख होते तो उड़कर तेरे पास आ तेरे आँचल में छिप जाता। अचानक आईने में अपनी शक्ल देखता हूँ तो उसमें अपने चेहरे में तेरा चेहरा ढूँढ ही लेता हूँ व मुस्कुराकर फिर काम में लगजाता हूँ। तू अपना खयाल रखना व मुझे बहुत याद करना, क्योंकि  तू बहुत-बहुत याद आती है।

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