Sunday, July 4, 2010

अर्धांगिनी...

अर्धांगिनी... साये की तरह मेरे व्यक्तित्व को सँभालते सँभालते अपना वजूद भी तुम खो देती हो ... ...इतनी एकरूप हो जाती हो तुम मुझसे , के धुप में अब तुम्हारा अपना साया भी नजर नही आता ...!


महसूस होता है जैसे तुमने स्वयं को विलय कर दिया है मुझमे ... मेरी फ़िक्र करती तुम्हारी निगाहें मुझे खिंच लाती है हर शाम ..भीड़ भाड़ भरी दुनिया से ... ! मेरी छोटीसी तकलीफ का एहसास रुका देता है ...तुम्हारी धडकन ...! तुम्हारी नजरों का क्षितिज ही .. मै हुं और मेरे इर्द गिर्द ही बसी है तुम्हारी दुनिया ...

 कौन हो तुम ? 'अर्धागिनी' हो तुम मेरी और काश ... मेरे अंदर का 'पुरुष' इस बात को समझ पाता

1 comment:

  1. काश ... मेरे अंदर का 'पुरुष' इस बात को समझ पाता
    -अब जब इतना सोच सके हैं..जरुर समझेगा.

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