मन ही मन मै उससे करता हू
निरंतर वार्तालाप बदले मे
उसके नयन करते है मुझसे -मूक संवाद
मेरे भीतर -उसकी परछाई ..होती ही है साथ
उसे -मुझसे अलग नही कर पाते
सागर की उंची उंची -लहरों के भी हाथ
हमारी खामोश बातो कों अनसुना कर
जानते हुवे भी -अनभिग्य रहता है
खुला सारा आकाश हमारे इस अदृश्य मिलन कों
कोई नही पाता जान न नदी के -
शाश्वत मोड़ न लहरो को छूकर
सीढियों सा -किनारों तक चढ़ते आये
बेतरतीब पाषाण दुनिया वालो की दृष्टी मे -
मानो -छिपने मे ...हम दोनों के अंतर्मन हो निष्णात
ऐसे तो -जीवन मे -प्रतिकूल ही बहती है वक्त की धार
कभी वह बन जाती है नाव कभी भी मै बन जाता हू
पतवार थक जाते है तो -आओ करो विश्राम
यह कह कर बुला लेती है .......
रेत पर बिखरी बबूल की छाँव
मै उससे पूछता आया हू -कब तुम
चमुच बोलोगी और मै सुनूंगा कल्पना ...!!
तुम्हारी मधुर आवाज लेकिन ......
आज जब उसने कहा स्वप्न मे -
मै बोल रही हू ,तुम्हारी कल्पना
मै तो हू ही तुम्हारे हरदम पास
Sunday, February 7, 2010
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