Sunday, February 7, 2010

मन ही मन मै उससे करता हू

निरंतर वार्तालाप बदले मे

उसके नयन करते है मुझसे -मूक संवाद

मेरे भीतर -उसकी परछाई ..होती ही है साथ

उसे -मुझसे अलग नही कर पाते

सागर की उंची उंची -लहरों के भी हाथ

हमारी खामोश बातो कों अनसुना कर

जानते हुवे भी -अनभिग्य रहता है

खुला सारा आकाश हमारे इस अदृश्य मिलन कों

कोई नही पाता जान न नदी के -

शाश्वत मोड़ न लहरो को छूकर

सीढियों सा -किनारों तक चढ़ते आये

बेतरतीब पाषाण दुनिया वालो की दृष्टी मे -

मानो -छिपने मे ...हम दोनों के अंतर्मन हो निष्णात

ऐसे तो -जीवन मे -प्रतिकूल ही बहती है वक्त की धार

कभी वह बन जाती है नाव कभी भी मै बन जाता हू

पतवार थक जाते है तो -आओ करो विश्राम

यह कह कर बुला लेती है .......

रेत पर बिखरी बबूल की छाँव

मै उससे पूछता आया हू -कब तुम

चमुच बोलोगी और मै सुनूंगा कल्पना ...!!

तुम्हारी मधुर आवाज लेकिन ......

आज जब उसने कहा स्वप्न मे -

मै बोल रही हू ,तुम्हारी कल्पना

मै तो हू ही तुम्हारे हरदम पास

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